सुधीर कुमार
राज्य परिवहन विभाग के क्षेत्रीय कार्यालय, हल्द्वानी, जिस का लोकप्रिय नाम आरटीओ ऑफिस है, में अगर किसी छोटे-मोटे काम के लिए भी जा रहे हैं तो अपने साथ पानी की एक बोतल (गर्मी में 5 बोतलें), भरा टिफिन, योगा मैट जरूर ले जाएँ. ध्यान रखें कि मोबाइल फुल चार्ज हो, ताकि वक़्त अच्छा बीते. वहाँ किसी छोटे से काम में भी आपको इतना ज्यादा समय लग सकता है कि ये चीजें आपके इस भयावह समय को आसान बना देंगी. आज का मेरा अनुभव कुछ ऐसा ही रहा.
आज सुबह मैं किसी का लाइसेंस बनवाने के सिलसिले में इस दफ़्तर पहुँचा. सवा दस बजे के आसपास जब मैं आरटीओ ऑफिस के सामने वाले सीएससी सेंटर में अपनी फ़ाइल तैयार करवा रहा था तो अल्मोड़ा से हल्द्वानी पहुँच कर, लाइसेंस अनुभाग में ठीक 10 बजे हाज़िरी लगा चुके सज्जन ने इत्तला दी कि वहाँ का सर्वर डाउन है.
अपनी फ़ाइल बनवाने के बाद मैं दाख़िल हुआ कई वजहों से कुख्यात इस दफ़्तर में. मेरे साथ वाले बंदे की ‘फ़ाइल’ में कल, यानि 28 दिसम्बर का ‘अपाइंटमेंट’ था तो मैंने विशेषाधिकारों का इस्तेमाल करते हुए उसे आज का करा दिया. ये बहुत बड़ा अपराध इसलिए नहीं था कि कुछ और लोगों ने भी कल-परसों का आज करवाया था. जैसे एक मोहतरमा के बेटे को परसों विदेश जाना था तो अधिकारियों द्वारा उनकी गुज़ारिश पर परसों का आज कर दिया गया था. विशेष अधिकारी द्वारा मुझे बताया गया कि जिस विभाग में मेरा काम है वहाँ यूपीएस ख़राब है लिहाजा 2 बज जाएंगे निबटते हुए. मुझे लगा कल दोबारा आने से बेहतर है आज ही 2 बज जाएँ. यूपीएस तो मैं 15 मिनट में बदलवा सकता हूँ, मैं कहना चाहता था लेकिन भीतर ही घोट लिया, जाने क्या माया हो. मेरे अनुरोध करने पर मुझे आज का ‘अपाइंटमेंट’ दे दिया गया.
उस के बाद का दिन मैंने एक आम आदमी की तरह ही बिताने का तय किया, जैसा कि मैं अमूमन किया करता हूँ. फ़ाइल ले कर मैं पहुँचा काउंटर नम्बर-4 पर जहाँ भीतर कोई मौजूद नहीं था. यहाँ लम्बी लाइन में खड़े लोगों ने मुझे भी बताया कि सर्वर फेल है. मैंने उनकी जानकारी दुरुस्त की कि सर्वर नहीं यूपीएस ख़राब है.
इस समय घड़ी में बज रहा था साढ़े दस. तो मेरी फ़ाइल का सारथी भी लग गया लाइन में. साढ़े ग्यारह बजे काउंटर पर एक जिम्मेदार __ नमूदार हुआ, मैं उसे इंसान तो नहीं कहूँगा, ऐसे लक्षण उस के भीतर मुझे दिखे नहीं. उस ने घोषणा की कि ‘एमसीबी ट्रिप हो गयी है, ठीक होने में कितना समय लगेगा, नहीं पता.’ यूपीएस ख़राब हुआ है से शुरू हुआ ये सफ़र सर्वर डाउन है से एमसीबी ट्रिप तक पहुँच चुका था. मैंने फिर जनता को जागरूक किया कि यूपीएस ख़राब है, शायद ज्यादा बड़ा होगा तभी बखत लग रहा है. इन 3 में से 2 समस्याओं को हल करने में मुझे बमुश्किल आधा घंटा लगता, सर्वर तो फिर सर्वर हुआ, उस के सामने मेरी क्या ही बिसात.
तभी मैंने मैंने विभाग के एक आला अधिकारी विमल पाण्डे को फ़ोन लगाया जो उठा नहीं. विश्वस्त सूत्रों से जानकारी मिली कि वे 11:30 से पहले दफ़्तर आते नहीं, जो नम्बर सेव नहीं है उसे उठाते नहीं. जाहिर है इस फ़ोन का बिल जनता के टेक्स के पैसे से वसूले गए राजस्व से ही जाता होगा. विभाग की सेवा नियमावली की तो मुझे जानकारी है नहीं. किसी ऑस्कर लूटने वाली फ़िल्म के लेखन, निर्माण, निर्देशन में व्यस्त होंगे मैंने सोचा. उनकी किसी फ़िल्म को हल्द्वानी के पत्तलकारों ने ऑस्कर लगभग दिला ही दिया था, अब उन का कैम्पेन फेल हुआ तो क्या ही किया जा सकता है.
खैर, समय नष्ट होना था तो होना था तो हो कर ही रहा. मैं पहुँचा मटन पॉइंट पर और हल्द्वानी की बेहतरीन सौगात उदरस्थ करने के बाद दोबारा पहुँचा राजस्व विभाग के बाद कुमाऊँ मंडल की सबसे ज्यादा न्यौछावर उदरस्थ करने वाले विभाग के द्वार पर. आप भी कभी उधर जाएँ तो मटन की दावत जरूर उड़ाएं, ग़जब का तर माल बनता है.
मेरी फ़ाइल भीतर थी, जिसकी फ़ाइल थी वह लाइन पर और मैं धूल के मैदान में. कुमाऊँ के सबसे बड़े परिवहन विभाग कार्यालय का एक समूचा अनुभाग ठप्प था और उसके आला अधिकारियों से ले कर क्लर्कों तक को समस्या का ही पता नहीं था. कतारबद्ध जनता निजीकरण का संकल्प ले कर मोदी की जय कर रही थी. लेकिन विभाग लाल फीताशाही के नशे में मगरूर था. मैंने कुछ पत्रकारों को फ़ोन लगाया तो उन्होंने मुझे बताया कि उन का संस्थान इस विभाग का लेमनचूस चूसता है, सो ख़बर बनाने के लिए मेहनत करने का कोई फायदा है नहीं. नहीं लगेगी. कोई आया भी तो उस ने सब से पहले लेमन चूस ही चूसा. चौथा खम्भा मेरे सामने लेमनचूस ही चूस रहा था. एक संस्थान के रिपोर्टर मेरे आग्रह पर आए, अब उनका जिक्र करूँगा तो दोस्तों की झूठी तारीफ़ मानी जाएगी. जाने दो.
किसी तरह दोपहर का डेढ़ बजा और काउंटर नम्बर-4 के भीतर जिंदगी वापस लौटी. तब जा कर पता चला कि एमसीबी ही ट्रिप थी, बंदा पार्ट्स ले कर आ ही रहा है. मतलब कुमाऊँ के सबसे महत्वपूर्ण सरकारी संस्थानों में से एक को 2 घंटा सिर्फ़ ये समझने में लग गया कि समस्या है क्या.
अगले 10 मिनट में काउंटर फिर जिंदा हो गया. चारों तरफ दौड़ रही ख़ुशी की लहर तब शोक में बदल गयी जब काउंटर के भीतर से आवाज आई कि 2 बज गया है अब से 3 तक लंच है. काउंटर के ‘जिम्मेदार’ मि. उप्रेती (शायद) ने कसम खा रखी थी कि वे सुबह 10 से दोपहर डेढ़ बजे तक निठल्ले रहेंगे लेकिन लंच नहीं करेंगे. क्योंकि उनके हार्मोन्स भले ही 10 से 2 और 3 से 5 काम-काम न चिल्लाते हों लेकिन 2 से 3 भात खाने के लिए भोंकने लगते हैं. अगर वे लंच पर न जाएँ तो उन के घर वालों को काट भी सकते हैं.
अब मैंने दोबारा अपने विशेषाधिकार इस्तेमाल करने का फैसला किया. अपनी फ़ाइल के मालिक को ‘विशेष अधिकारी,’ जिन का नाम लेने से अब मैं गुरेज करूँगा, नहीं, सम्भागीय परिवहन अधिकारी संदीप सैनी के पास भेजा. वे त्रस्त जनता के बीच मौजूद 2 अन्य साहसी युवाओं के साथ साहब के चैम्बर में दाखिल हुए. सैनी साहब को उन्होंने समस्या बताई कि डेढ़ बजे काउंटर चालू हुआ और 2 बजे लंच. तुम्हारा तो कल का ‘अपाइंटमेंट’ मैंने आज का कर दिया, उनके जवाब ने मेरी कमजोर फ़ाइल का मुँह बंद कर दिया. एक मजबूत तर्कशक्ति के मालिक के सामने मेरी फ़ाइल ने ख़ुद को बेबस महसूस किया. ये चाहें तो मेरा दो दशक पुराना लाइसेंस निरस्त कर दें मैंने सोचा. मैंने फ़ाइल से कहा चुपचाप लाइन में लग जाओ.
इस बीच सहायक सम्भागीय परिवहन अधिकारी विमल पाण्डे को फ़ोन लगाया लेकिन वे शायद किसी फ़िल्म में व्यस्त रहे होंगे, जबकि असल कहानी तो उनके कार्यालय में रोज खेली जाती है, उसे फिल्माने का ख्याल उनके दिमाग में भला क्यों नहीं आता होगा? इसी सवाल के साथ मैं वापस लौटा तब तक मेरी फ़ाइल भी निबट ही चुकी थी. शायद कार्यालय बंद ही हुआ चाहता होगा जब ‘मेरा’ लाइसेंस बन चुका था.
अब मैं भी एक अच्छी फ़िल्म बनाने के बारे में सोचने लगा हूँ. आप उस फ़िल्म की कहानी का पहला ड्राफ्ट पढ़ रहे हैं, प्रोड्यूसर, डायरेक्टर वगैरा के बारे में मैं बता ही चुका हूँ.
( सुधीर कुमार काफल ट्री के संपादक हैं । )