संजय रावत
मर्चुला हादसे से पूरा देश गमगीन है। नेता जन जहां आंसू बहा हर संभव मदद का वास्ता दे रहे हैं वही राज्य के वाशिंदे हादसे के कारणों को कायदे से उकेर कर दिखा बता रहे हैं। सवाल उठ रहे हैं कि यह वाकई हादसा था या निति जनित आपदा थी जिसने 36 लोगों की जिंदगी लील ली, 27 घायलों में से कुछ अब भी मौत के द्वार पर खड़े हैं। गहरी खाई में गिर कर मौत के तांडव की यह दूसरी बड़ी घटना है जिसने उत्तराखंड वासियों को झकझोर कर रख दिया है। इतनी भयावह दुर्घटना पर मुख्यमंत्री जी के विवेक ने जो काम किया है वो यह सोचने पर मजबूर करता है कि आपके नीतिगत फैसलों के केंद्र में आमजन हैं या गुजरात के पूंजीपति ।
हुआ क्या यह आप और आपके अधिनस्थों और उच्च माननीयों को मालूम नहीं, यह संभव है ही नहीं। इसका उदाहरण है रामनगर में आपका पुर्जोर विरोध। जब आमजन किसी सत्तासीन का विरोध करते हैं इसका मतलब साफ है कि सारे मामलों के लिए मुखिया को ही जिम्मेदार मानते हैं। मानें भी क्यों न, कुमाऊं और गढ़वाल के सीमांकन वाली सड़कों का निर्माण कार्य कब से नहीं हुआ है। जो हुआ भी उनकी निविदाएं आपके मित्रजन या पार्टी हितैषियों को बंटी हैं। तो सबसे पहले तो लोक निर्माण विभाग और उस संबंधित मंत्री को इसका जिम्मेदार ठहराया जाना था। खैर इतना सोचने का समय माननीयों ने आपको दिया ही कहां कि आप आमजन के बारे में सोच भी सकें। आपकी एक ही जिम्मेदारी है कि शिष्टाचार भेंट में कुछ वांछित वस्तुएं आगे प्रेषित कर सकें।
संवेदनाओं का पता आपके बयानों से नहीं अपितु आपके विवेक और कार्यवाही से चल पाता है। इस हादसे में अपने माता पिता खो चुकी शिवानी की पढ़ाई और पालन का खर्च आपने स्वयं पर न डाल कर उत्तराखंड सरकार पर डाला है। आपको जानकारी भी है कि इस उम्र में अनाथ हुई बच्ची की मनोदशा क्या होगी। क्या वो स्वास्थ्य मस्तिष्क के साथ अपनी उम्र को विकसित कर भी सकेगी या नहीं। जबकि आपके शासन काल में आज राज्यभर में मानसिक रोगियों की संख्या करीब बीस लाख पहुंच चुकी है। पहले से कर्ज में डूबी आपकी सरकार भविष्य में और कितने हादसों को निमंत्रित कर रही है इसका गणित आपको अभी आपके मातहतों को पता है और न उच्च माननीयों को। पर यह गणित जनविरोध झेलने के बाद आपको समझ आ जाना चाहिए।
चलिए अब हादसा कहें या आपकी नीतियों का अंजाम, कुछ बिंदुओं पर आपके शुभेच्छुओं को सोचना ही चाहिए। वह यह कि भाबर में जिनका घर नहीं मौत का सफर उनको आपकी सड़कें ही नहीं दिखाएंगी बल्कि पहाड़ पर रोजगार न मिल पाना भी दिखाएगा। उस बस में जो क्षमता से ज्यादा भीड़ थी वह इसलिए थी कि एक दिन देरी से पहुंचने पर उनकी नौकरियां जा सकती थी। उनकी कमाई के हिसाब से उनके पास सफर को निजी वाहन न थे जिस वजह से वे मजबूरन उस बस में जानवरों की तरह ठूंसे हुए थे। सरकारी वाहनों की आवाजाही को शासन ने पहाड़ों पर पूर्ण रूप से बंद कर दिया है जिस वजह से निजी वाहनों का मनमाफिक किराया यात्री दे ही नहीं पाते।
आप नहीं समझ पाएंगे साहब कि एक दिन नौकरी पर देर से पहुंचना मतलब अगले दिन दुबारा महीनों नौकरी की तलाश में भटकना। मरना तो इनको था ही आपकी नीतियों के निर्धारण से। पहाड़ में मर गए, पहाड़ जाते जाते मर गए, कई पहाड़ आते आते मर गए। पहाड़ न आते तो अंदर ही अंदर मर जाते। पर आते रहते है पहाड़ पर मर जाने के लिए, क्योंकि उनको बेदखल कर नीतियां भी उनके खिलाफ ही बनाई जा रही हैं। आपकी नीतियों के चलते भेड़ बकरियों की तरह मरना हर उस उत्तराखंडी की मजबूरी है जो पलायन की मार झेलते हुए आपकी जनविरोधी नीतियों में बिल्कुल मशीन सा हो गया है। जिसे यह भी नहीं पता कि धाकड़ धामी का जनसरोकारों से कोई लेना देना नहीं है, कुछ लेना देना है तो वो है अपने उच्च माननीयों के आदेश पर चुनिंदा पूंजीपतियों को मुनाफा पहुंचने के लिए दमन की नीतियों को सहर्ष स्वीकार लेना।