हम भी पागल तुम भी पागल ..

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देहरी के बाहर से एक मिमियाती हुई आवाज़ आई – दीप पाठक जी घर पे हैं ?


नाशता बना रहा था कि एक सज्जन पहुंचे, “मुझे फलाने ने आपके पास भेजा है !”
अच्छा बैठिए !”

चाय बनायी कुशल पूछी बातचीत हुई…
साहब खुद डाक्टर हैं, साहित्य वाले नहीं दवाई वाले, और अवसाद से ग्रसित हैं ! एक लंबा चौड़ा अंग्रेजी नाम भी बताया बीमारी का !
अब वो भी पगले, जिसने मेरा पता बताया वो भी पगला और मैं तो महा पगला ठैरा यूनिवर्स ग्यानी नं-1 (गुफा स्पेशलिस्ट )
वो अपनी समस्या बताने लगे कि ये दवा चल री वो प्रीकाशन चल री, मजे की बात उनका मनोचिकित्सक भी खुद अपना ईलाज कहीं और बड़े चिकित्सक से करवा रहा है !
वो एक आर्टिकल (जो उत्तराखंड में 7.5 लाख मनोरोगियों की आरटीआई से जानकारी लेकर जिलेवार लिखा था कि कहां कितने लोग रजिस्टर हुए ) उसके बावत बात कर रहे थे !
मैंने कहा – “डा. साब आप परेशान न हों देश इस टैम आधे अवसादियों और आधे उन्मादियों से भरा है, और पागलों का डाक्टर खुद पागल ही होता है ! बैलेंस बड़ी चीज है जो हम अपनी जरुरत के हिसाब से खुद बनाते हैं, बच्चा ग्रेविटी की पकड़ से छूटने को , किशोर जवानी और भविष्य को बैलेंस करने को, गृहस्थ घर चलाने को,और रस्सी पर चलने वाला नट करतब दिखाने को, जिसकी जैसी जरुरत वैसा बैलेंस !

हर चीज खिसकी हुई है धरती ही अपनी धुरी से खिसकी है” मैंने उन्हें ग्लोब दिखाया ! कहा स्थिर कुछ नहीं है !” तब वे तनावमुक्त हुए ! मैने कहा देखो गुलजार साब को भी शिकायत हो गयी वो लिखे थे-
“ये आसमान ये बादल ये रास्ते ये हवा
हरेक चीज है अपनी जगहा ठिकाने पे
कई दिनों से शिकायत नहीं जमाने से…..”

डाक्टर साहब बहुत तनावमुक्त हुए अपनी दवाइयां दिखाई, दवा का मूल घटक सिडेटिव यानी नींद आने वाली चीज थी (वैसे भी इन दवाओं में नींद आने के अलावा और मुख्य चीज कुछ नहीं होता बाकी प्लैसिबो ट्रीटमेंट (ठग्गू दवा) होती कैप्सूल में ग्लूकोस भरा होता है और मरीज ये सोच के कि दवा चल रही है राहत महसूस करता है ) !

किसी से लड़की नी पट री, किसी को दूसरे का पति पसंद आ रा, कोई दूसरे की बीबी को हसरत से देख रा…कोई दूसरे की आमदनी से दुखी है..किसी की किताब नी छप री,(एक पिरोफेसर इसी गम में सटके हुए हैं ) ये दुनियां संताप और अवसाद से भरी है ! ये डिसआर्डर वो डिश आर्डर… “डिश” के लिए जेब में कौड़ी नी ठैरी आर्डर (इच्छाऐं) पे आर्डर दिये जा रे !

बहरहाल डाक्टर साब मेरी काउंसिलिंग से खुश होकर गये और दो 5 सौ के दो नोट बतौर फीस दे गये, मैंने उनको दोस्तोयेव्स्की की पुस्तक “अपराध और दंड” बतौर दवा के रुप में दी ! मन लगाकर पढ़ेंगे तो बैलेंस होंगे और ना हुए तो बैलेंस तो रोज की कवायद है !

दीप पाठक जी एक सामाजिक और राजनीतिक कार्यकर्ता है ।


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