इस तरह के सभी बच्चों को ‘ए डी – एच डी’ कम्प्लीटली हो यह जरूरी नहीं है। किसी को सिर्फ ‘ए डी ‘ भी हो सकता है यानी ‘विचलन और अस्थिरता’ तो किसी को सिर्फ ‘एच डी’ भी हो सकता है, यानी ‘अतिक्रियाशीलता और आवेगशीलता’ । कुछ बच्चों में ये दोनों एक साथ भी हो सकते हैं ।
हम सब ने बहुत से ऐसे छोटे बच्चे देखे होंगे जो बहुत ऊर्जावान तो होते हैं पर उदंड भी उतने ही होते हैं । मोटामोटी यही पहचान है उन बीमार बच्चों की जो जन्म से ही ‘ए डी – एच डी’ नामक बीमारी से ग्रस्त होते हैं जिसमें उनका अपना कोई कुसूर नहीं होता है । अब ये ‘ए डी – एच डी’ क्या है, इस पर आगे बात करते हैं पहले कुछ ऐसे जीवंत उदाहरण जान लें कि देख रेख और जानकारी के अभाव में उनका व्यक्तित्व किस कदर असामाजिक हो सकता है ।
उदाहरण के तौर पर एक कथित शिक्षित परिवार का करीब अधेड़ सा दिखने वाला 50 वर्षीय व्यक्ति शराब पी कर उत्तेजित हो अपने ही घर के आगे सड़क पर लोगों से भीख यह कह कर मांगता है कि – कोई 10 ₹ दे दो बाबा, मैंने 3 दिन से खाना नहीं खाया है । मैं इस मकान का मालिक हूं, पर ये कमीने मुझे घर में आने नहीं देते । यह सब कर वो पांच एक सौ ₹ इकट्ठा कर लेता है और फिर शराब पी कर घर के बाहर सड़क पर ही लेट जाता है । यह सब वह इसलिए करता है कि घर वाले सामाजिक दबाव में आकर उसे घर में बुला लें और उसकी मर्जी के हिसाब से चलें । पर ऐसा होता नहीं है, फिर थक हार कर वह काम की तलाश में निकल जाता है और हफ्तों नहीं दिखता । वो ऊर्जावान है, प्रतिभावान है और रचनाशील भी इसलिए किसी तरह गुजर बसर कर जिंदा है । अब इतना गुणकारी है तो मुश्किल क्या है । तो मुश्किल यह है कि सारे गुणों की दिशा ‘ए डी – एच डी’ ने गड़बड़ा दी है । जिसे पहचान कर 45 वर्ष पहले तो ठीक किया जा सकता था पर अब यह सम्भव नहीं रहा । इस तरह असामान्य और असामाजिक व्यवहार के कई और उदाहरण हमको समाज में देखने को मिलते ही रहते हैं ।
अब बात करते है कि ये ‘ए डी -एच डी’ है क्या बला । यह एक न्यूरोडवलपमेंटल डिजीज है, यानी मस्तिष्क के विकसित होने के दौरान हुई गड़बड़ी । सीधे शब्दों में कहें तो मानसिक स्वास्थ्य विकार है जो अनुवांशिक रूप से बच्चों में आता है । इसके हर पहलू को जानने समझने के लिए हमने डॉ युवराज पंत से बातचीत की, जो उत्तराखंड के कुमाऊं में विख्यात ‘क्लिनिकल सायकोलॉजिस्ट’ हैं ।
ये ‘ए डी – एच डी’ बीमारी है क्या, इसके के बारे में आसान भाषा में बताइए ।
- मेडिकल टर्म में समझना थोड़ा मुश्किल होता है इसलिए आम भाषा में ही बात करते हैं तांकि जनसामान्य को आसानी से समझ आ सके । इस बीमारी के लिए सबसे पहले तो ये जान लिया जाए कि इसमें बच्चों की अपनी कोई ग़लती नहीं होती, ये कुछ अनुवांशिक तो कुछ मां-बाप की अंजानी गलतियों की वजह से बच्चों में आ जाती है । विशेषज्ञ मानते हैं कि मस्तिष्क के किसी विशेष भाग में जन्म से पहले चोट लगने पर या मस्तिष्क के अविकसित होने के कारण बच्चा खुद को एकाग्र नहीं कर पाता ।
मां – बाप की अंजानी गलतियों से आपका क्या मतलब है ।
- अंजानी गलतियों से मेरा मतलब है कि माँ या पिता नशे के आदि हों या उनके बीच अक्सर विवाद रहता हो अथवा वो मानसिक स्वास्थ्य पीड़ित हों या इससे संबंधित कोई दवा लेते हों ।
इस बीमारी को कैसे समझें और कैसे जानें कि बच्चे इस बीमारी की गिरफ्त में हैं ।
- जी । ये एक महत्वपूर्ण सवाल है जो हर माता-पिता या किसी भी संवेदनशील नागरिक और अध्यापक को समझना चाहिए । तो इस बीमारी का पूरा नाम है ‘एटेंशन-डेफिसिटी-हाइपर एक्टिविटी डिसऑर्डर इस रोग से पीड़ित बच्चों की दिक्कत यह होती है कि वे बहुत चलायमान प्रवर्ती के होते हैं यानी कभी कुछ अच्छा लगता है तो कभी कुछ जो सामान्य व्यवहार से मेल नहीं खाता है । बहुत ऊर्जावान और उत्तेजित स्वभाव और असंतोषी होते हैं । सीधा मतलब कि ये दुनियाँ उनके हिसाब की नहीं और वो इस दुनियां के हिसाब के नहीं होते । और सरल भाषा में बोलें तो चंचल और उधमबाज होते हैं । इसी वजह से वे दुनियांदारी के मानकों के अनुरूप खुद को ढ़ाल ही नहीं पाते और इसी वजह से वो पिछड़ते हुए सामाजिक संरचना से बाहर हो जाते हैं ।
सामान्य बच्चे भी तो चंचल होते ही है, फिर फर्क क्या है सामान्य और बीमार बच्चों में ।
- बिल्कुल सही बात । कुछ एक अपवाद छोड़ दिए जाएं तो चंचलता बचपन का हिस्सा है क्योंकि उस वख्त अच्छे बुरे का बोध नहीं होता । लेकिन दोनों में फर्क यह है कि सामान्य बच्चों में उम्र बढ़ने के साथ साथ जहां स्थिरता आने लगती है वहीं इन बच्चों को उम्र बढ़ने के साथ अवसाद घेर लेता है, जिस वजह से ये आक्रामक और असामाजिक व्यवहार की तरफ बढ़ने लगते हैं औऱ आत्मसम्मान जैसी चीजों का मतलब भी नहीं जान रहे होते हैं ।
मगर ये सब होता किस वजह से है । यानी इसके कुछ वैज्ञानिक कारक तो होते ही होंगे ।
- जी बिल्कुल । बिना कारकों के क्यों होने लगा कुछ भी । वैसे हम पहले बात कर चुके की कुछ वंशानुगत कुछ माता-पिता की अनजानी गलतीतिया और कुछ ‘जीन’ के मारे ऐसा होता है। अब इस वजह से पैदा दूसरे कारकों पर बात करें तो… दरअसल हमारे दिमाग की संरचना बहुत जटिल है, इसी के कुछ हिस्से इन बच्चों के साथ दगाबाजी करते हैं । जो मुख्यतः ‘प्री फ्रंटल कार्टेक्स’, ‘कोडेट न्यूक्लियस’ और ‘ग्लोबस् पैंलिड्स‘ जो क्रमशः कुछ काम बिगाड़ देते हैं यानी ‘प्री फ्रंटल कार्टेक्स‘ एकाग्रता में गड़बड़ी करता है तो कोडेट न्यूक्लियस‘ फिक्र और आत्मबोध में और ‘ग्लोबस् पैंलिड्स‘ परिस्थिति व ज्ञान का संबंध बनाने में परेशानी पैदा करता है । अब ये देखिए कि जब मस्तिष्क के हिस्से दूसरे बच्चों की बनिस्पत छोटे होते हैं तो बच्चे का आचरण खुद-बा-खुद असंतुलित हो जाता है । और यह कितना दुर्भाग्यपूर्ण है कि इसका बोध बच्चे को होता ही नहीं है ।
तो हमारी दुनिया, हमारे समाज में कितने ऐसे बच्चे होते हैं । इस गंभीर समस्या का कोई निदान है भी कि नहीं ।
- एक सर्वेक्षण के मुताबिक स्कूलों से प्राप्त आंकड़ों की बात करें तो दुनियां भर में 2 से 9.5 प्रतिशत बच्चे इस रोग का शिकार हैं । अब निदान की बात करें तो माता-पिता, शिक्षकगण या कोई जागरूक संबंधी समय से जान ले कि बच्चा सामान्य नहीं है, यह भी 6 साल की उम्र तक । फिर समय पर अनुकूल माहौल, शिक्षा और चिकित्सा मिल जाए तो ये समस्या काफी हद तक कम हो सकती है और बच्चों के मुख्य धारा में शामिल होने का रास्ता बन सकता है ।
इसके अलावा और क्या सकारात्मक प्रयास किए जा सकते हैं ।
- बहुत कुछ किया जा सकता है । जैसे इन बच्चों की परेशानियों को ध्यान में रख कर, खास रुपरेखा बना प्रशिक्षण की व्यवस्था की जानी चाहिए, बशर्ते प्रशिक्षण का अतिरिक्त दबाव बच्चों पर ना हो यह ध्यान रखना बेहद जरूरी है । अब तो ऐसी दवाएं और मनोवैज्ञानिक उपचार भी मौजूद हैं जिससे बच्चों की अवेगशीलता को कुछ नियंत्रित किया जा सकता है । कुल मिला इन बच्चों की उन्नति के लिए माता-पिता, शिक्षक और अन्य लोगों का सक्रिय सहयोग बेहद जरूरी है । इस काम के लिए सामाजिक सरोकार वाले लोगों की जरूरत है, जिनकी संवेदनशीलता और धैर्य के बलबूते इन बच्चों को आगे बढ़ाया जा सकता है ।
- अब तो हमारे देश में भी ऐसे स्कूल हैं जहां इस तरह के बच्चों को अनुकूल वातावरण मुहैय्या कराया जाता है ।
इस प्रश्नावली में हमसे कोई बात छूट गई हो बताएं ।
- मुझे एक ही बात और जोड़नी है कि इस तरह के सभी बच्चों को ‘ए डी – एच डी’ कम्प्लीटली हो यह जरूरी नहीं है। किसी को सिर्फ ‘ए डी ‘ भी हो सकता है यानी ‘विचलन और अस्थिरता’ तो किसी को सिर्फ ‘एच डी’ भी हो सकता है, यानी ‘अतिक्रियाशीलता और आवेगशीलता’ । कुछ बच्चों में ये दोनों एक साथ भी हो सकते हैं ।
बेहद जरूरी और जानने योग्य पक्ष है यह
Good